Saturday 10 October 2020

जैसा तू, वैसा मैं



















ये रंगों का कारवां जिसे हम शाम कहते हैं,
और उसके साथ चलते ये बादल, कुछ रंगीले कुछ बेनाम रहते हैं ||

ये दोनों ही इस झील में अपना अक्स देखते हैं,
और यही सोचते हैं की क्यों इसे लोग इतना सुन्दर कहते हैं?

ये देख झील थोड़ा मुस्कुरायी और शाम से बोली,
मैं वही रंग दिखाती हूँ , जिन रंगों की होली है तुमने खेली ||

ये सुन शाम थोड़ा इतराई, और जाते जाते चाँद से कुछ कह गयी,
चाँद जब आसमां में आया , झील को देख उसकी भी आँखें चुंधियाई ||

उसने भी झील से पूछा, इतनी रात में ये चमक कहा से लाती हो?
झील थोड़ा और मुस्कुरायी और बोली, इस चमक का दीया भी तुम हो और बाती भी तुम ||

इतना सुन चाँद थोड़ा और चमक उठा ,
और जाते जाते सूरज से कह गया, कुछ सच्चा,  कुछ झूठा ||

अब सूरज चला रंगने झील को, जो बैठी थी थोड़ी शांत थोड़ी भोली,
पर देख उसे सूरज भी जला, क्यूंकि वो पहले ही खेल चुकी थी रंगों की होली ||

ये देख सूरज ने पूछा, कहा से लाती हो इतने रंग?
सुनके सूरज को, झील हँसके बोली, तुमने ही तो रंगा है मुझे अपने संग ||

सुनके उसकी बातें, सूरज ने बहुत सोचा पर उसे कुछ समझ न आया,
देख सूरज की विडम्बना, झील ने उसे समझाया ||

असली सुंदरता तुम में है, मैं तो बस तुम्हारा दर्पण हूँ ,
इस जीवन को प्रकाशित तुम करते हो, मैं तो बस तुम्हें अर्पण हूँ ||

चन्द्रमा भी अंधकार को समाप्त कर देता है,
इसलिए वो मुझमें भी रोशनी भर देता है ||

शाम को तुम जाते हुए जब आसमाँ को रंग लगाते हो,
उन्हीं के कुछ छींटें तुम मुझपे भी गिराते हो ||

न जाने क्यों सबको ये लगता है कि झील बहुत सुन्दर है?
पर वास्तविक्ता में तो सुंदरता उन्हीं के अंदर है ||

सुन के झील की बातें, अब सूरज के समझ में आई,
ये अद्भुत सुंदरता तो उसी के प्रकाश ने है फैलाई ||

शाम को जाते-जाते जब सूरज ने चाँद से की चर्चा,
चाँद ने तब समझा क्यों अंधकार में झील की सुंदरता का निशाँ भी नहीं होता?

चाँद को आखिर समझा क्यों झील कहती थी उसे,
दिया और बाती है वो उसका ||  

इस लम्बी गुफ्तगु के बाद साकित ने सोचा,
क्यों न वो सूरज बन जाए?
फिर किसी और के जीवन को वो जगमगाए ||

क्यों न वो चन्द्रमाँ बन जाए?
किसी के जीवन का तमस  हर कर, उसे रोशन कर जाए ||

क्यों न साकित  किसी के जीवन में नए रंग बिखेर  दे?
 उसके सब दुःख हर ले और उसे खुशियों का पता दे दे ||


- साकित 

Monday 23 March 2020

दो पल ...




दो पल बैठ के सोचता हूँ ,
कि कहाँ निकल आयी है ज़िन्दगी ||
दो पल बैठ के सोचता हूँ ,
कि दो पल सी लगती है बीती हुई ज़िन्दगी ||

इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में,
कम ही मिले दो पल सुकून के ||
कभी कुछ पाने का फितूर था,
तो कभी कुछ पल जूनून के ||

आज इन लोगों को देख के लगता है,
कि ऐसे कितने पल मैंने कमाए?
जो हिसाब लगाने बैठूँ,
तो दो पल में समझ आता है,
कि कितने कमाए और कितने गवाए?

एक उम्र निकल जाती है,
रोटी, कपडा और मकान की जुगत में ||
मगर इस उम्र के अंत में समझ आता है,
कि क्या तुम्हें कोई याद करता है अपनी मुराद में?

ये पेड़, पौधे, झील और कश्ती,
कल भी थे और आज भी ||
पर फिर भी दो पल बैठ के ही समझ आता है,
कि ये खूबसूरत कल भी थे, और आज भी ||

सैंकड़ो पल दूसरों से बातें की,
पर दो पल कभी खुद से न बात की ||
अब काफी वक़्त है खुद से बात करने के लिए,
बस दरकार है तो किसी के साथ की ||

आज दो पल बैठ के इस चिड़िया को देख के सोच रहा हूँ,
कि उड़ना तो ये भी जानती है,
मगर दो पल बैठ के ये भी इस लम्हे को जी रही है ||

आज मन इस झील की तरह शांत है,
क्यूंकि आज दो पल का आराम है ||
ज़िन्दगी भर इस मन को यही समझाता रहा,
कि आज तो भागना है, क्यूंकि अभी तो बहुत काम है ||

अब लगता है कि काश इस वक़्त को पीछे मोड़ दूँ,
कुछ पल और कमा लूँ यादों के हिसाब में,
और आज अगर मैं बैठूं बीते कल को पढ़ने,
तो कुछ तो पन्ने भरे हों मेरी यादों के किताब में ||

आज वक़्त के झरोके से देखता हूँ,
तो यादों के कुछ ही फ़ूल खिले दिखते हैं ||
पर अब समझ में आया,
कि ये फ़ूल  तो दो पल रुक के मुस्कुराने से ही खिलते हैं ||  

अब दो पल बैठ के सोचता हूँ,
कि पहले दो पल बैठ के क्यों नहीं सोचा?
क्या इतने महंगे थे दो पल,
कि पूरी ज़िन्दगी ही खर्च हो गई?

अब ज़िन्दगी के उस पड़ाव पे हूँ,
कि हर पल को गिनता हूँ,
अब ज़िन्दगी ने ये सिखा दिया,
कि हर पल को ज़िंदा हूँ ||

न जाने कब ये दो पल खत्म हो जाएँ?
न जाने कब ये पल और कम हो जाएँ?
इसलिए अब यहाँ बैठ के दो पल सोचता हूँ,
कि ये दो पल अब यहीं थम जाएँ ||