ये रंगों का कारवां जिसे हम शाम कहते हैं,
और उसके साथ चलते ये बादल, कुछ रंगीले कुछ बेनाम रहते हैं ||
ये दोनों ही इस झील में अपना अक्स देखते हैं,
और यही सोचते हैं की क्यों इसे लोग इतना सुन्दर कहते हैं?
ये देख झील थोड़ा मुस्कुरायी और शाम से बोली,
मैं वही रंग दिखाती हूँ , जिन रंगों की होली है तुमने खेली ||
ये सुन शाम थोड़ा इतराई, और जाते जाते चाँद से कुछ कह गयी,
चाँद जब आसमां में आया , झील को देख उसकी भी आँखें चुंधियाई ||
उसने भी झील से पूछा, इतनी रात में ये चमक कहा से लाती हो?
झील थोड़ा और मुस्कुरायी और बोली, इस चमक का दीया भी तुम हो और बाती भी तुम ||
इतना सुन चाँद थोड़ा और चमक उठा ,
और जाते जाते सूरज से कह गया, कुछ सच्चा, कुछ झूठा ||
अब सूरज चला रंगने झील को, जो बैठी थी थोड़ी शांत थोड़ी भोली,
पर देख उसे सूरज भी जला, क्यूंकि वो पहले ही खेल चुकी थी रंगों की होली ||
ये देख सूरज ने पूछा, कहा से लाती हो इतने रंग?
सुनके सूरज को, झील हँसके बोली, तुमने ही तो रंगा है मुझे अपने संग ||
सुनके उसकी बातें, सूरज ने बहुत सोचा पर उसे कुछ समझ न आया,
देख सूरज की विडम्बना, झील ने उसे समझाया ||
असली सुंदरता तुम में है, मैं तो बस तुम्हारा दर्पण हूँ ,
इस जीवन को प्रकाशित तुम करते हो, मैं तो बस तुम्हें अर्पण हूँ ||
चन्द्रमा भी अंधकार को समाप्त कर देता है,
इसलिए वो मुझमें भी रोशनी भर देता है ||
शाम को तुम जाते हुए जब आसमाँ को रंग लगाते हो,
उन्हीं के कुछ छींटें तुम मुझपे भी गिराते हो ||
न जाने क्यों सबको ये लगता है कि झील बहुत सुन्दर है?
पर वास्तविक्ता में तो सुंदरता उन्हीं के अंदर है ||
सुन के झील की बातें, अब सूरज के समझ में आई,
ये अद्भुत सुंदरता तो उसी के प्रकाश ने है फैलाई ||
शाम को जाते-जाते जब सूरज ने चाँद से की चर्चा,
चाँद ने तब समझा क्यों अंधकार में झील की सुंदरता का निशाँ भी नहीं होता?
चाँद को आखिर समझा क्यों झील कहती थी उसे,
दिया और बाती है वो उसका ||
इस लम्बी गुफ्तगु के बाद साकित ने सोचा,
क्यों न वो सूरज बन जाए?
फिर किसी और के जीवन को वो जगमगाए ||
क्यों न वो चन्द्रमाँ बन जाए?
किसी के जीवन का तमस हर कर, उसे रोशन कर जाए ||
क्यों न साकित किसी के जीवन में नए रंग बिखेर दे?
उसके सब दुःख हर ले और उसे खुशियों का पता दे दे ||
- साकित
और उसके साथ चलते ये बादल, कुछ रंगीले कुछ बेनाम रहते हैं ||
ये दोनों ही इस झील में अपना अक्स देखते हैं,
और यही सोचते हैं की क्यों इसे लोग इतना सुन्दर कहते हैं?
ये देख झील थोड़ा मुस्कुरायी और शाम से बोली,
मैं वही रंग दिखाती हूँ , जिन रंगों की होली है तुमने खेली ||
ये सुन शाम थोड़ा इतराई, और जाते जाते चाँद से कुछ कह गयी,
चाँद जब आसमां में आया , झील को देख उसकी भी आँखें चुंधियाई ||
उसने भी झील से पूछा, इतनी रात में ये चमक कहा से लाती हो?
झील थोड़ा और मुस्कुरायी और बोली, इस चमक का दीया भी तुम हो और बाती भी तुम ||
इतना सुन चाँद थोड़ा और चमक उठा ,
और जाते जाते सूरज से कह गया, कुछ सच्चा, कुछ झूठा ||
अब सूरज चला रंगने झील को, जो बैठी थी थोड़ी शांत थोड़ी भोली,
पर देख उसे सूरज भी जला, क्यूंकि वो पहले ही खेल चुकी थी रंगों की होली ||
ये देख सूरज ने पूछा, कहा से लाती हो इतने रंग?
सुनके सूरज को, झील हँसके बोली, तुमने ही तो रंगा है मुझे अपने संग ||
सुनके उसकी बातें, सूरज ने बहुत सोचा पर उसे कुछ समझ न आया,
देख सूरज की विडम्बना, झील ने उसे समझाया ||
असली सुंदरता तुम में है, मैं तो बस तुम्हारा दर्पण हूँ ,
इस जीवन को प्रकाशित तुम करते हो, मैं तो बस तुम्हें अर्पण हूँ ||
चन्द्रमा भी अंधकार को समाप्त कर देता है,
इसलिए वो मुझमें भी रोशनी भर देता है ||
शाम को तुम जाते हुए जब आसमाँ को रंग लगाते हो,
उन्हीं के कुछ छींटें तुम मुझपे भी गिराते हो ||
न जाने क्यों सबको ये लगता है कि झील बहुत सुन्दर है?
पर वास्तविक्ता में तो सुंदरता उन्हीं के अंदर है ||
सुन के झील की बातें, अब सूरज के समझ में आई,
ये अद्भुत सुंदरता तो उसी के प्रकाश ने है फैलाई ||
शाम को जाते-जाते जब सूरज ने चाँद से की चर्चा,
चाँद ने तब समझा क्यों अंधकार में झील की सुंदरता का निशाँ भी नहीं होता?
चाँद को आखिर समझा क्यों झील कहती थी उसे,
दिया और बाती है वो उसका ||
इस लम्बी गुफ्तगु के बाद साकित ने सोचा,
क्यों न वो सूरज बन जाए?
फिर किसी और के जीवन को वो जगमगाए ||
क्यों न वो चन्द्रमाँ बन जाए?
किसी के जीवन का तमस हर कर, उसे रोशन कर जाए ||
क्यों न साकित किसी के जीवन में नए रंग बिखेर दे?
उसके सब दुःख हर ले और उसे खुशियों का पता दे दे ||
- साकित
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