Monday, 23 March 2020

दो पल ...




दो पल बैठ के सोचता हूँ ,
कि कहाँ निकल आयी है ज़िन्दगी ||
दो पल बैठ के सोचता हूँ ,
कि दो पल सी लगती है बीती हुई ज़िन्दगी ||

इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में,
कम ही मिले दो पल सुकून के ||
कभी कुछ पाने का फितूर था,
तो कभी कुछ पल जूनून के ||

आज इन लोगों को देख के लगता है,
कि ऐसे कितने पल मैंने कमाए?
जो हिसाब लगाने बैठूँ,
तो दो पल में समझ आता है,
कि कितने कमाए और कितने गवाए?

एक उम्र निकल जाती है,
रोटी, कपडा और मकान की जुगत में ||
मगर इस उम्र के अंत में समझ आता है,
कि क्या तुम्हें कोई याद करता है अपनी मुराद में?

ये पेड़, पौधे, झील और कश्ती,
कल भी थे और आज भी ||
पर फिर भी दो पल बैठ के ही समझ आता है,
कि ये खूबसूरत कल भी थे, और आज भी ||

सैंकड़ो पल दूसरों से बातें की,
पर दो पल कभी खुद से न बात की ||
अब काफी वक़्त है खुद से बात करने के लिए,
बस दरकार है तो किसी के साथ की ||

आज दो पल बैठ के इस चिड़िया को देख के सोच रहा हूँ,
कि उड़ना तो ये भी जानती है,
मगर दो पल बैठ के ये भी इस लम्हे को जी रही है ||

आज मन इस झील की तरह शांत है,
क्यूंकि आज दो पल का आराम है ||
ज़िन्दगी भर इस मन को यही समझाता रहा,
कि आज तो भागना है, क्यूंकि अभी तो बहुत काम है ||

अब लगता है कि काश इस वक़्त को पीछे मोड़ दूँ,
कुछ पल और कमा लूँ यादों के हिसाब में,
और आज अगर मैं बैठूं बीते कल को पढ़ने,
तो कुछ तो पन्ने भरे हों मेरी यादों के किताब में ||

आज वक़्त के झरोके से देखता हूँ,
तो यादों के कुछ ही फ़ूल खिले दिखते हैं ||
पर अब समझ में आया,
कि ये फ़ूल  तो दो पल रुक के मुस्कुराने से ही खिलते हैं ||  

अब दो पल बैठ के सोचता हूँ,
कि पहले दो पल बैठ के क्यों नहीं सोचा?
क्या इतने महंगे थे दो पल,
कि पूरी ज़िन्दगी ही खर्च हो गई?

अब ज़िन्दगी के उस पड़ाव पे हूँ,
कि हर पल को गिनता हूँ,
अब ज़िन्दगी ने ये सिखा दिया,
कि हर पल को ज़िंदा हूँ ||

न जाने कब ये दो पल खत्म हो जाएँ?
न जाने कब ये पल और कम हो जाएँ?
इसलिए अब यहाँ बैठ के दो पल सोचता हूँ,
कि ये दो पल अब यहीं थम जाएँ ||

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